पुलिस न्यायपालिका का एक मुख्य किरदार है। जहां लोग न्यायपाने की आस लेकर जाते है। कोर्ट व पीडि़तों के बीच की कड़ी पुलिस ही है जो कोर्ट के सामने सबूत पेश करती है ताकि पीडि़त के साथ न्याय हो सकें। अगर हम कहें कि पुलिस ही वह अहम पहलू है जो किसी भी पीडि़त को न्याय दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता हैं। आखिर पीडि़त कौन होता है। पीडि़त हमेशा कमजोर ही होता है। जिससे वह न्याय पाने की आस में पुलिस के दरवाजे जाता है। रिपोर्ट दर्ज करने के बाद पुलिस सच्चाई की खोजबीन करती है तथा मामले को कोर्ट के सामने पेश करने के बाद सबूतों व तथ्यों को रखती है जिससे आधार पर कोर्ट निर्णय लेता हैं। तथा अपना फैसला सुनाते हुए दोषी व निर्दोषी होना तय करता हैं। अब सवाल यह उठता है कि जब इतना कुछ पुलिस के हाथों में है तो क्या पुलिस दोषी को निर्दोष व निर्दोष को दोषी साबित कर सकती है। इसका जवाब है हां। अगर अपने कर्तव्यों का पालन सही तरीके से ना करते हुए कोई पुलिस अधिकारी अपने अधिकारों का दुरूप्रयोग करते हुए तथ्यों व सबूतों के साथ छेड़छाड़ कर दी जाए तो ऐसा संभव है। अब आप समझ ही गए होंगे कि आखिर किसी पीडि़त को न्याय दिलाने में पुलिस की क्या भूमिका होती है लेकिन सवाल यह उठता है अगर पुलिस ही अपने काम में आना कानी करने लगे तो पीडि़त वर्ग क्या करेंगा। क्योंकि अगर देखा जाए तो सारी ताकत तो पुलिस के पास है। बनाने से लेकर बिगाडऩे का खेल तक। लेकिन जिस प्रकार से आज समाज में पुलिस अपना रोल निभा रही है कहीं ना कहीं वह लोगों के मन में असंतुष्टि पैदा करता हैं। पुलिस आखिर है तो नागरिकों की सेवा के लिए। लेकिन मुनष्य गलतियों का एक पुतला है। ओर पुलिस की वर्दी में भी मनुष्य ही होता है। अगर देखा जाए तो न्यायपालिका की सारी शक्ति का केन्द्रीयकरण पुलिस के पास होता है जिसके कारण पीडि़त व्यक्ति को कई बार इसका खामियाजा भुगतना पड़ता हैं। काफी उदाहरण मिल जाएंगे जिसमें पुलिस अधिकारी के पास कोई पीडि़त न्याय की आस में गया लेकिन पुलिस ने उसकी नहीं सूनी व किसी ना किसी लालच में आकर या फिर दबाव में आकर शोषित करने वाले के पक्ष में कार्य किया जिसका खामियाजा पीडि़त पक्ष को भुगतना पड़ा । आज भी जब दो व्यक्तियों की लड़ाई हो जाती है तो बहुत से लोग यह आश्वासन देते हुए नजर आ जाते है कि आपस में फैसला कर लोग पुलिस आई तो फैसला वह भी करवाएगी लेकिन अपनी कमिशन लेकर जाएगी। क्या यह पुलिस या फिर न्यायपालिका के सबसे मजबूत पहलू पर आम नागरिक का खोता हुआ विश्वास नहीं है तो क्या हैं। आज थाने में अपनी एफआईआर लिखवाना किसी विजय से कम नहीं हैं। बलात्कार, चोरी ना जाने कितने खबरें अखबार में अपनी जगह बनाती है जहां पीडि़त ने पुलिस के दरवाजे पर न्याय के लिए दस्तखत दी लेकिन पुलिस वालों ने अपने दरवाजे गरीबों के लिए या फिर शोषित के लिए बंद करके शोषण करने वाले का साथ दिया। क्या एक जगह इतनी ताकत एकत्रित होना सही है। पुलिस वाले चाहे किसी पर भी झूठा आरोप लगाकर उसे जेल में भेज सकते है वह बात अलग है कि वह आरोप साबित ना होने पर छूट जाएगा लेकिन सवाल यह उठता कि इस दौरान जो उसमें शारीरिक, मानसिक व आर्थिक नुकसान झेला है वह कौन वापस देगा। आर्थिक नुकसान की तो चलो भरपाई हो जाएगी लेकिन शारीकिर व मानसिक नुकसान की भरपाई कौन करेंगा। उसके परिवार ने पीछे से जो कष्ट सहन किए बदनामी उठाई उसका जिम्मेवार कौन होगा। हमारी न्याय व्यवस्था में वर्षों तक चलने वाले केस से आखिर एक गरीब व मजबूर इंसान किस प्रकार से न्याय की आस लगाकर लड़ सकता है। हजारों में किसी एक को इंसाफ मिलता है। हम उसे उदाहरण के तौर पर पेश करते हुए बखान करते है लेकिन जिन हजारों को इंसाफ नहीं मिला। जिनकी आवाज भी कोर्ट तक नहीं पहुंची । केवल पुलिस प्रशासन में फैले भ्रष्टाचार के कारण। क्या हम उन पीडि़तों के दोषी नहीं जो पुलिस के कारण न्यायपालिका पर अपना भरोसा खो चुके हैं। क्या इस सिस्टम को दुरुस्त करने की जरूरत नहीं जहां गरीब को सताया जाता है ओर अमीरों की खिदमत की जाती हैं। कागचों में तो पुलिस की शक्ति का विकेन्द्रीकरण है जहां पुलिस पर लगाम है लेकिन अगर हम जमीनी स्तर पर जाकर देखें तो भ्रष्टाचार के खिलाफ पुलिस नहीं लड़ती बल्कि भ्रष्टाचार के साथ पुलिस खड़ी दिखाई देती हैं। जहां हर स्तर पर भ्रष्ट पुलिस अधिकरियों, कर्मचारियों का हफ्ता बंधा रहता हैं। पैसों का हाथ समय- समय पर जेब में जाता रहता हैं व गरीबों का खून चुसता रहता हैं। न्याय व्यवस्था में विश्वास बनाए रखने के लिए कभी कभी एक आध खबर आती रहती है जो पूरी गंदगी पर गंगा जल छिड़कने का काम करती है लेकिन सच्चाई तब सामने आती है जहां पुलिस प्रशासन से सामना होने पर अपनी जेब ढीली करनी पड़ती है वह चाहे किसी कार्य के लिए पुलिस वेरिफिकेशन हो या फिर न्याय पाने के लिए पुलिस की शरण में जाना हो। जहां चढावा चढने के बाद ही आपको कुछ आस जगती हैं।
जोगेन्द्र मान
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