नई दिल्ली। अगर आपको कोई ऐसा व्यक्ति मिले जिसकी जुबान सख्त हो ओर हंसी मजाक करते हुए आपकी परेशानी का हल निकालने की कोशिश करे तो संभव है वह व्यक्ति जाट नस्ल का हो। अक्सर इनकी लंबाई ओर आवाज से लोग घबरा जाते है लेकिन जो लोग इनके संपर्क में आते है ओर इन्हें जानते है वह बखूबी जानते है कि जाट होना क्या होता है। आधुनिकता से परे भी एक दुनिया है जहां आप मिट़टी से जुडे होते हो। कहते है दुख के बिना सुख का कोई महत्व नहीं होता ओर गरीबी के बिना अमीरी का कोई महत्व नहीं होता, क्योंकि जिस व्यक्ति ने दुख व गरीबी नहीं देख रखी वह व्यक्ति कभी भी सुख व अमीरी के सही मायने नहीं जान सकता। जाट समाज इसे अच्छी तरह जानता है। जाट समाज जानता है कि मेकडोनल्ड में बर्गर खाने के क्या मायने है ओर खेतों की मेड पर बैठ कर सूखी रोटी ओर प्याज खाने के क्या मायने है। विकास की हर कीमत जाटों ने अपनो की कुर्बानी देकर चुकाई हैं। देशभक्ति तो इनके खून में खुदा ने इस कदर दी है कि जान ओर फर्ज में अगर एक चीज चुननी हो तो ये फर्ज का चुनाव करेगे । यही कारण है कि जाट रेजिमेंट की मिसाले भारत के इतिहास में भरी पडी है। आज भी खेलों में सबसे ज्यादा पदक लेकर भारत को अंतर राष्टीय स्तर पर सबसे ज्यादा पदक दिलाने वालों में जाटों का नाम ही प्रमुख रूप से लिया जाताहैं। भारत पर विदेशी हमलावरों के हमले होते रहे हैं। अपनी जमीन की लड़ाई जाटों ने अपनी जान की बाजी लगाकर लड़ी है। इस लड़ाई में जाटनियों का सहयोग केवल घायलों के मरहम-पट्टी करना नहीं रहा, बल्कि पति-पत्नी एक ही कमरबंध से अपने आप को पीठ के बल बांधकर युद्ध करते थे। सामने के वार पति बचाता था और पीछे के पत्नी। इतिहास गवाह है कि जाट के जीवन-मरण में महिला का योगदान बराबरी का नहीं तो उससे कम भी नहीं रहा। लेकिन इसके बावजूद भी जाटों के लिए आज यह शर्म की बात है कि जाट बाहुल्य क्षेत्रों में पुरुषों के मुकाबले में स्त्री कम होती जा रही हैं। यह लिंग-भेद जाटों के गौरव में सबसे बड़ा कलंक है। यह मुद्दा यहीं पर खत्म नहीं होता बल्कि ‘सगोत्र प्रेम विवाह’ के जानकारी में आने पर तो ऑनर किलिंग जैसी शर्मनाक वारदातें सामने आती रहती हैं।
जाटों को भारतीय पौराणिक ग्रंथों में वर्णित चारों वर्णों में कोई स्थान नहीं मिला इसलिए ये एक अलग ही पहचान रखते हैं। इनकी चेहरे की बनावट, शारीरिक बनावट और क्षमता, त्वचा के रंग, रीति-रिवाज और शारीरिक हाव-भाव ही इनका इतिहास और इनके मूल स्थान का ब्यौरा देने के लिए काफी हैं। जीन्स और डीएनए के आधार पर जाटों को दक्षिणी रूस से लेकर ईरान-ईराक तक परिभाषित किया जा सकता है। इसलिए जाट एक नस्ल है, जाति नहीं।
जाटों की उत्पत्ति और इतिहास पर कालिका रंजन कानूनगो, उपेंद्र नाथ शर्मा, जदुनाथ सरकार, नत्थन सिंह और कुंवर नटवर सिंह ने काफी लिखा है। इनमें सबसे महत्वपूर्ण कालिका रंजन की किताब है। वह जाटों का चरित्र विश्लेषण करते हुए लिखते हैं कि जाट मरते वक्त अपने उत्तराधिकारी को यह बता कर मरता है कि किस-किसका कितना कर्जा चुकाना है। महामना पंडित मदन मोहन मालवीय ने जाटों को भारत की रीढ़ कहा है।
जाट एक प्रगतिशील नस्ल है। जाटों में विधवा विवाह जैसी प्रगतिवादी और विकासवादी रस्में तो शुरू से ही हैं। धार्मिक संस्कारों के संबंध में जाट ‘रूढ़ि’ को नहीं बल्कि ‘उत्सव’ को प्राथमिकता देता है। स्वतंत्रता और प्रगति की तलाश में जाट हिंदू, मुस्लिम, सिख, आर्यसमाज आदि धर्म और संप्रदायों को अपनाने से नहीं चूकता। पंचायत भी जाटों के कबीलों से शुरू हुई। इन सबके बावजूद जाटों में अभिव्यक्ति की भारी कमी है। अपनी बात को कैसे कहना-रखना है, यह जाट के लिए काफी मुश्किल है। कह सकते हैं कि जाट में बुद्धि तो होती है लेकिन सयानेपन की कमी होती है। साथ ही जाटों से जुड़ी एक कहावत मशहूर है कि ‘आगे सोचे दुनिया और पीछे सोचे जाट’ यानी दुनिया के दूसरे लोग तो करने से पहले सोचते हैं लेकिन जाट करने के बाद सोचता है। यह जाटों की सबसे बड़ी खामियों में से एक है, जिसे अब दूर करना चाहिए।
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